Saturday, August 6, 2011

श्री सुदामा जी


शीश पगा न झगा तन पे, प्रभु जान्हे के आये बसे की ग्रामा ।
धोती फटी सी, लटी दुपटी अरु पाये उपनाह को नहीं समां ॥
द्वार खड़ो निज दुर्बल एक, रह्यो चकी सो वसुधा अभिरामा ।
पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा  ॥


ऐसे बेहाल बेमायन सो  पग कंटक जाल लगे पुनि जोए ।
हाय महादुख पायो सखा तुम आये इते न किते दिन खोये ॥
देख सुदामा की दिन दशा करुणा करके करूणानिधि रोये ।
पानी परात को हाथ छुयो नहीं नैनं के जल सों पग धोये ॥


प्रेम के भूखे प्रेम के तंदूर, प्रेम के भाव से खाने लगे हैं
तंदूर के दानो में प्रभु दीं की दरिद्रता चबाने लगे हैं
एक एक मुट्ठी में एक एक लोक सुदामा के भग्य में जाने लगे हैं
त्रिभुवनपति की देख उदारता तीनो भवन थर्राने लगे हैं
पहली मुट्ठी में प्रभु ने स्वर्ग सुदामा के नाम किया है
दूसरी मुट्ठी में पृथ्वी लोक का वैभव सुदामा के नाम किया है
तीसरी मुट्ठी में देने लगे जो बैकुंठ तो लक्ष्मी जी ने रोक लिया है
अपना निवास भी दान में दे रहा, कैसा ये दानी मेरा पिया है



हर दाने का मोल देने लगे भगवान, रह जायेगा सृष्टी में बस एक ही धनवान 


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