Monday, August 8, 2011

दो कवितायेँ श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी की


आओ फिर से दिया जलाएँ
 भरी दुपहरी में अंधियारा
 सूरज परछाई से हारा
 अंतरतम का नेह निचोड़ें-
 बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
 आओ फिर से दिया जलाएँ

हम पड़ाव को समझे मंज़िल
 लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल
 वतर्मान के मोहजाल में-
 आने वाला कल भुलाएँ।
 आओ फिर से दिया जलाएँ।

आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
 अपनों के विघ्नों ने घेरा
 अंतिम जय का वज़्र बनाने-
 नव दधीचि हड्डियां गलाएँ।
 आओ फिर से दिया जलाएँ.






बाधाएँ आती हैं आएँ
 घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
 पावों के नीचे अंगारे,
 सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
 निज हाथों में हँसते-हँसते,
 आग लगाकर जलना होगा।
 क़दम मिलाकर चलना होगा।

हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
 अगर असंख्यक बलिदानों में,
 उद्यानों में, वीरानों में,
 अपमानों में, सम्मानों में,
 उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
 पीड़ाओं में पलना होगा।
 क़दम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में,
 कल कहार में, बीच धार में,
 घोर घृणा में, पूत प्यार में,
 क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
 जीवन के शत-शत आकर्षक,
 अरमानों को ढलना होगा।
 क़दम मिलाकर चलना होगा।

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
 प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
 सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
 असफल, सफल समान मनोरथ,
 सब कुछ देकर कुछ मांगते,
 पावस बनकर ढ़लना होगा।
 क़दम मिलाकर चलना होगा।

कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
 प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
 नीरवता से मुखरित मधुबन,
 परहित अर्पित अपना तन-मन,
 जीवन को शत-शत आहुति में,
 जलना होगा, गलना होगा।
 क़दम मिलाकर चलना होगा।



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