Monday, August 8, 2011

कुछ गज़लें

1

भीगी हुई आँखों का ये मन्ज़र न मिलेगा
भीगी हुई आँखों का ये मंज़र न मिलेगा
घर छोड़ के मत जाओ कहीं घर न मिलेगा
फिर याद बहुत आयेगी ज़ुल्फ़ों की घनी शाम
जब धूप में साया कोई सर पर न मिलेगा
आँसू को कभी ओस का क़तरा न समझना
ऐसा तुम्हें चाहत का समुंदर न मिलेगा
इस ख़्वाब के माहौल में बे-ख़्वाब हैं आँखें
बाज़ार में ऐसा कोई ज़ेवर न मिलेगा
ये सोच लो अब आख़िरी साया है मुहब्बत
इस दर से उठोगे तो कोई दर न मिलेगा


2
कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
 कि आज धूप नहीं निकली आफताब के साथ

तो फिर बताओ समंदर सदा को क्यूँ सुनते
 हमारी प्यास का रिश्ता था जब सराब के साथ

बड़ी अजीब महक साथ ले के आई है
 नसीम रात बसर की किसी गुलाब के साथ

फिजा में दूर तक मरहबा के नारे हैं
 गुजरने वाले हैं कुछ लोग याँ से ख्वाब के साथ

ज़मीन तेरी कशिश खींचती रही हमको
 गए ज़रूर थे कुछ दूर माहताब के साथ


3
इब्तिदा-ऐ-इश्क है रोता है क्या

आगे आगे देखिये होता है क्या

काफिले में सुबह के इक शोर है

यानी गाफिल हम चले सोता है क्या

सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं

तुख्म-ऐ-ख्वाहिश दिल में तू बोता है क्या

ये निशान-ऐ-इश्क हैं जाते नहीं

दाग छाती के अबस धोता है क्या

गैरत-ऐ-युसूफ है ये वक़्त-ऐ-अजीज़

‘मीर’ इस को रायेगां खोता है क्या

4

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
 क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो

आँखों में नमी हँसी लबों पर
 क्या हाल है क्या दिखा रहे हो

बन जायेंगे ज़हर पीते पीते
 ये अश्क जो पीते जा रहे हो

जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है
 तुम क्यों उन्हें छेड़े जा रहे हो

रेखाओं का खेल है मुक़द्दर
 रेखाओं से मात खा रहे हो

5
ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया
 जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया

यूँ तो हर शाम उम्मीदों में गुज़र जाती थी
 आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया

कभी तक़्दीर का मातम कभी दुनिया का गिला
 मंज़िल-ए-इश्क़ में हर गाम पे रोना आया

जब हुआ ज़िक्र ज़माने में मोहब्बत का ‘शकील’
 मुझ को अपने दिल-ए-नाकाम पे रोना आया

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