Tuesday, August 9, 2011

सूरदास

ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं |
 हंस सुता की सुंदर कगरी, अरु कुंजनि की छाँही ||
 वै सुरभी वै बच्छ दोहनी, खरिक दुहावन जाहीं |
 ग्वाल-बाल मिलि करत कुलाहल, नाचत गहि गहि बाहीं ||
 यह मथुरा कंचन की नगरी, मनि-मुक्ताहल जाहीं |
 जबहिं सुरति आवति वा सुख की, जिय उमगत तन नाहीं ||
 अनगन भाँति करी बहु लीला, जसुदा नंद निबाहीं |
 सूरदास प्रभु रहे मौन ह्वै, यह कहि कहि पछिताही ||


No comments:

Post a Comment