Tuesday, August 9, 2011

एक सुन्दर कविता

हम दीवानों का अलग है मंजर,
कही खुशहाली कही दिल बंजर,
कही जीते है उनकी यादों में,
कही याद में उनकी मरते हैं
कैसे ये बतलाए उनको ,
हम उनसे मोहब्बत करते हैं ।

देखा करते हैं तुमको अक्सर,
हम सबसे नजरें चुराकर
दिल की गलियाँ सज उठती हैं,
बस तेरे कदमों की आहट पाकर
कह देंगे उनसे अपना हाले दिल,
रोजाना ये दम भरते हैं,
पर कैसे बतलाए उनको,
हम उनसे मोहब्बत करते हैं ।

तेरे साथ भर होने से हमदम,
हर गम अपना मिट जाता है
तेरी इन मीठी बातों में ,
मानो वक्त थम सा जाता है
दिल के अरमानों को हम,
पर रोज छुपाया करते हैं
कैसे ये बतला दे उनको,
हम उनसे मोहब्बत करते हैं ।

तेरी चाहत में दिलबर हमनें,
खुद को है खुद ही में पाया
तुझसे मोहब्बत है अपनी इबादत,
खुदा तुझमें है नजर आया
इश्के समन्दर में खोए से ,
हम डूबते और उभरते हैं
कैसे हम बतलाए उनको
उन्हें कितनी मोहब्बत करते हैं ।

ओ कातिल तेरे प्यार में माना ,
अपना ये दिल टूटा है
तुझसे रिश्ते की चाहत में,
हर रिश्ता पीछे छूटा है
दिल के टुकड़े , आँखों में छुपाकर
हम तो आँहें भरते हैं
कैसे ये बतलाए, फिर भी
उनसे मोहब्बत करते हैं ।

वैसे तो कह जाते हैं सब कुछ,
हम शब्दों की भाषा में
पढ़ लेते हैं सबका मन,
हम आशा और निराशा में
इक अपना किस्सा है कुछ ऐसा,
कुछ कहने से भी डरते हैं
कैसे ये बतलाए तुमको,
हम तुमसे मोहब्बत करते हैं ।

सूरदास

ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं |
 हंस सुता की सुंदर कगरी, अरु कुंजनि की छाँही ||
 वै सुरभी वै बच्छ दोहनी, खरिक दुहावन जाहीं |
 ग्वाल-बाल मिलि करत कुलाहल, नाचत गहि गहि बाहीं ||
 यह मथुरा कंचन की नगरी, मनि-मुक्ताहल जाहीं |
 जबहिं सुरति आवति वा सुख की, जिय उमगत तन नाहीं ||
 अनगन भाँति करी बहु लीला, जसुदा नंद निबाहीं |
 सूरदास प्रभु रहे मौन ह्वै, यह कहि कहि पछिताही ||


Monday, August 8, 2011

दो कवितायेँ श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी की


आओ फिर से दिया जलाएँ
 भरी दुपहरी में अंधियारा
 सूरज परछाई से हारा
 अंतरतम का नेह निचोड़ें-
 बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
 आओ फिर से दिया जलाएँ

हम पड़ाव को समझे मंज़िल
 लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल
 वतर्मान के मोहजाल में-
 आने वाला कल भुलाएँ।
 आओ फिर से दिया जलाएँ।

आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
 अपनों के विघ्नों ने घेरा
 अंतिम जय का वज़्र बनाने-
 नव दधीचि हड्डियां गलाएँ।
 आओ फिर से दिया जलाएँ.






बाधाएँ आती हैं आएँ
 घिरें प्रलय की घोर घटाएँ,
 पावों के नीचे अंगारे,
 सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
 निज हाथों में हँसते-हँसते,
 आग लगाकर जलना होगा।
 क़दम मिलाकर चलना होगा।

हास्य-रूदन में, तूफ़ानों में,
 अगर असंख्यक बलिदानों में,
 उद्यानों में, वीरानों में,
 अपमानों में, सम्मानों में,
 उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
 पीड़ाओं में पलना होगा।
 क़दम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में,
 कल कहार में, बीच धार में,
 घोर घृणा में, पूत प्यार में,
 क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
 जीवन के शत-शत आकर्षक,
 अरमानों को ढलना होगा।
 क़दम मिलाकर चलना होगा।

सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
 प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
 सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
 असफल, सफल समान मनोरथ,
 सब कुछ देकर कुछ मांगते,
 पावस बनकर ढ़लना होगा।
 क़दम मिलाकर चलना होगा।

कुछ काँटों से सज्जित जीवन,
 प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
 नीरवता से मुखरित मधुबन,
 परहित अर्पित अपना तन-मन,
 जीवन को शत-शत आहुति में,
 जलना होगा, गलना होगा।
 क़दम मिलाकर चलना होगा।



कुछ गज़लें

1

भीगी हुई आँखों का ये मन्ज़र न मिलेगा
भीगी हुई आँखों का ये मंज़र न मिलेगा
घर छोड़ के मत जाओ कहीं घर न मिलेगा
फिर याद बहुत आयेगी ज़ुल्फ़ों की घनी शाम
जब धूप में साया कोई सर पर न मिलेगा
आँसू को कभी ओस का क़तरा न समझना
ऐसा तुम्हें चाहत का समुंदर न मिलेगा
इस ख़्वाब के माहौल में बे-ख़्वाब हैं आँखें
बाज़ार में ऐसा कोई ज़ेवर न मिलेगा
ये सोच लो अब आख़िरी साया है मुहब्बत
इस दर से उठोगे तो कोई दर न मिलेगा


2
कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
 कि आज धूप नहीं निकली आफताब के साथ

तो फिर बताओ समंदर सदा को क्यूँ सुनते
 हमारी प्यास का रिश्ता था जब सराब के साथ

बड़ी अजीब महक साथ ले के आई है
 नसीम रात बसर की किसी गुलाब के साथ

फिजा में दूर तक मरहबा के नारे हैं
 गुजरने वाले हैं कुछ लोग याँ से ख्वाब के साथ

ज़मीन तेरी कशिश खींचती रही हमको
 गए ज़रूर थे कुछ दूर माहताब के साथ


3
इब्तिदा-ऐ-इश्क है रोता है क्या

आगे आगे देखिये होता है क्या

काफिले में सुबह के इक शोर है

यानी गाफिल हम चले सोता है क्या

सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं

तुख्म-ऐ-ख्वाहिश दिल में तू बोता है क्या

ये निशान-ऐ-इश्क हैं जाते नहीं

दाग छाती के अबस धोता है क्या

गैरत-ऐ-युसूफ है ये वक़्त-ऐ-अजीज़

‘मीर’ इस को रायेगां खोता है क्या

4

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
 क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो

आँखों में नमी हँसी लबों पर
 क्या हाल है क्या दिखा रहे हो

बन जायेंगे ज़हर पीते पीते
 ये अश्क जो पीते जा रहे हो

जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है
 तुम क्यों उन्हें छेड़े जा रहे हो

रेखाओं का खेल है मुक़द्दर
 रेखाओं से मात खा रहे हो

5
ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया
 जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया

यूँ तो हर शाम उम्मीदों में गुज़र जाती थी
 आज कुछ बात है जो शाम पे रोना आया

कभी तक़्दीर का मातम कभी दुनिया का गिला
 मंज़िल-ए-इश्क़ में हर गाम पे रोना आया

जब हुआ ज़िक्र ज़माने में मोहब्बत का ‘शकील’
 मुझ को अपने दिल-ए-नाकाम पे रोना आया

Saturday, August 6, 2011

श्री सुदामा जी


शीश पगा न झगा तन पे, प्रभु जान्हे के आये बसे की ग्रामा ।
धोती फटी सी, लटी दुपटी अरु पाये उपनाह को नहीं समां ॥
द्वार खड़ो निज दुर्बल एक, रह्यो चकी सो वसुधा अभिरामा ।
पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा  ॥


ऐसे बेहाल बेमायन सो  पग कंटक जाल लगे पुनि जोए ।
हाय महादुख पायो सखा तुम आये इते न किते दिन खोये ॥
देख सुदामा की दिन दशा करुणा करके करूणानिधि रोये ।
पानी परात को हाथ छुयो नहीं नैनं के जल सों पग धोये ॥


प्रेम के भूखे प्रेम के तंदूर, प्रेम के भाव से खाने लगे हैं
तंदूर के दानो में प्रभु दीं की दरिद्रता चबाने लगे हैं
एक एक मुट्ठी में एक एक लोक सुदामा के भग्य में जाने लगे हैं
त्रिभुवनपति की देख उदारता तीनो भवन थर्राने लगे हैं
पहली मुट्ठी में प्रभु ने स्वर्ग सुदामा के नाम किया है
दूसरी मुट्ठी में पृथ्वी लोक का वैभव सुदामा के नाम किया है
तीसरी मुट्ठी में देने लगे जो बैकुंठ तो लक्ष्मी जी ने रोक लिया है
अपना निवास भी दान में दे रहा, कैसा ये दानी मेरा पिया है



हर दाने का मोल देने लगे भगवान, रह जायेगा सृष्टी में बस एक ही धनवान 


Thursday, August 4, 2011

नर हो न निराश करो मन को।।

कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रह के निज नाम करो।

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो!
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो।
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को।
सँभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला!
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना।
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को।।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ!
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठ के अमरत्व विधान करो।
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को।।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे।
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे।
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को।।

यह धरती कितना देती है ....

एक कविता श्री सुमित्रानंदन पन्त जी की,
जो की मुझे बचपन से ही बहुत ज्यादा पसंद है ......



मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे,
सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी
और फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूँगा!
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बन्ध्या मिट्टी नें न एक भी पैसा उगला!-
सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गये!
मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक
बाल-कल्पना के अपलर पाँवडडे बिछाकर
मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोये थे,
ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था!

अर्द्धशती हहराती निकल गयी है तबसे!
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने,
ग्रीष्म तपे, वर्षा झूली, शरदें मुसकाई;
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे, खिले वन!
औ\' जब फिर से गाढ़ी, ऊदी लालसा लिये
गहरे, कजरारे बादल बरसे धरती पर,
मैंने कौतूहल-वश आँगन के कोने की
गीली तह यों ही उँगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिये मिट्टी के नीचे-
भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिये हो!
मैं फिर भूल गया इस छोटी-सी घटना को,
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन!
किन्तु, एक दिन जब मैं सन्ध्या को आँगन में
टहल रहा था,- तब सहसा, मैने देखा
उसे हर्ष-विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से!

देखा-आँगन के कोने में कई नवागत
छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं!
छांता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की,
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं प्यारी-
जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे-
डिम्ब तोड़कर निकले चिडियों के बच्चों से!
निर्निमेष, क्षण भर, मैं उनको रहा देखता-
सहसा मुझे स्मरण हो आया,-कुछ दिन पहिले
बीज सेम के मैने रोपे थे आँगन में,
और उन्हीं से बौने पौधो की यह पलटन
मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से,
नन्हें नाटे पैर पटक, बढती जाती है!

तब से उनको रहा देखता धीरे-धीरे
अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियाँ,
हरे-भरे टंग गये कई मखमली चँदोवे!
बेलें फैल गयी बल खा, आँगन में लहरा,
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का
हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को,-
मैं अवाक् रह गया-वंश कैसे बढ़ता है!
छोटे तारों-से छितरे, फूलों के छीटे
झागों-से लिपटे लहरों श्यामल लतरों पर
सुन्दर लगते थे, मावस के हँसमुख नभ-से,
चोटी के मोती-से, आँचल के बूटों-से!

ओह, समय पर उनमें कितनी फलियाँ फूटी!
कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ,-
पतली चौड़ी फलियाँ! उफ उनकी क्या गिनती!
लम्बी-लम्बी अँगुलियों - सी नन्हीं-नन्हीं
तलवारों-सी पन्ने के प्यारे हारों-सी,
झूठ न समझे चन्द्र कलाओं-सी नित बढ़ती,
सच्चे मोती की लड़ियों-सी, ढेर-ढेर खिल
झुण्ड-झुण्ड झिलमिलकर कचपचिया तारों-सी!
आः इतनी फलियाँ टूटी, जाड़ो भर खाई,
सुबह शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के
जाने-अनजाने सब लोगों में बँटबाई
बंधु-बांधवों, मित्रों, अभ्यागत, मँगतों ने
जी भर-भर दिन-रात महुल्ले भर ने खाई !-
कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ!

यह धरती कितना देती है! धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को!
नही समझ पाया था मैं उसके महत्व को,-
बचपन में छिः स्वार्थ लोभ वश पैसे बोकर!
रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ।
इसमें सच्ची समता के दाने बोने है;
इसमें जन की क्षमता का दाने बोने है,
इसमें मानव-ममता के दाने बोने है,-
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें
मानवता की, - जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ-
हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे।  





ऑपरेशन मजनू

पार्क के एक सुनसान कोने में
एक दरोगा जी एक महिला सिपाही
के साथ बैठे बतिया रहे थे
बात बात पर हस रहे थे
खिलखिला रहे थे
और उस से सटते जा रहे थे
इतने में उनके इंस्पेक्टर  जी वहां आ गए
उनको इस मुद्रा में देख कर ताव खा गए
बोले "आपको शर्म नहीं आती है
भला कही ड्यूटी टाइम में ऐसी हरकत की जाती है?"
दारोगा जी घबरा गए और बोले -
अरे नहीं सर हम तो इस को "ऑपरेशन मजनू" के बारे में समझा रहे हैं
इंस्पेक्टर साहब बोले कल से
ऑपरेशन मजनू की कमान हम अपने हाथ में लेंगे
आप चल कर थाना देखिये
इसे हम समझा देंगे.







मेरी पहली नज्म पेश है

उनकी रूह दे दे कर सितम आम हुयी जाती है
आबरू इश्क की आज फिर नीलाम हुयी जाती है

है तेरे शाम का भरोसा लेकिन
शाम से पहले मेरी शाम हुयी जाती है

कोशिशे जब्त ए सितम पर था बहुत नाज हमें
कोशिश ए जब्त भी नाकाम हुयी जाती है

दिल मेरा काँप रहा है की हवासकारों में
अब मुहब्बत मेरी बदनाम हुयी जाती है

उनकी रूह दे दे कर सितम आम हुयी जाती है
आबरू इश्क की आज फिर नीलाम हुयी जाती है